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आरक्षण, सामान्य जाति, और जातिगत नेताओं की भूमिका: एक सच्चाई

✍️ शैलेश कुमार सिंह, संपादक

जब संविधान निर्माताओं ने आरक्षण की व्यवस्था की, तो उनका उद्देश्य था – समाज के उन वर्गों को मुख्यधारा में लाना, जो ऐतिहासिक रूप से वंचित और शोषित रहे हैं। बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर और बी.एन. राव जैसे विद्वानों ने इसे सिर्फ 10 वर्षों के लिए एक अस्थायी उपाय के रूप में प्रस्तावित किया था। लेकिन आज, आज़ादी के 75 वर्षों बाद भी यह व्यवस्था अस्थायी न रहकर एक राजनीतिक औजार बन चुकी है।

शैलेश कुमार सिंह


आरक्षण का मूल उद्देश्य था सामाजिक न्याय, परंतु आज इसका सबसे अधिक दुरुपयोग वही कर रहे हैं जो समाज में जाति की राजनीति को बढ़ावा देते हैं। जातिगत नेता वोटबैंक की राजनीति के लिए आरक्षण को न तो खत्म होने देते हैं, और न ही इसकी समीक्षा करने देते हैं।

आज स्थिति यह है कि हर जाति सड़कों पर है – पाटीदार, जाट, मराठा, गुर्जर, राजभर, भूमिहार, ब्राह्मण – सभी आरक्षण की मांग कर रहे हैं। यह इस बात का संकेत है कि आरक्षण ने समरसता के बजाय समाज में विद्वेष और असमानता को जन्म दिया है।

🔴 योग्यता की बलि और प्रतिभा का पलायन

जब किसी चयन प्रक्रिया में योग्यता के स्थान पर केवल जाति को प्राथमिकता दी जाती है, तो योग्य और गरीब सामान्य वर्ग का छात्र खुद को ठगा हुआ महसूस करता है। IAS, IIT, NEET जैसे क्षेत्रों में मेहनती छात्रों के सामने अवसर सीमित हो जाते हैं। परिणामस्वरूप, या तो वह देश से बाहर पलायन करता है या फिर हतोत्साहित होकर प्रयास छोड़ देता है। यह केवल व्यक्तिगत नुकसान नहीं, बल्कि देश की सामूहिक क्षति है।

🔴 क्या आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं होना चाहिए?

गरीबी जाति देखकर नहीं आती। एक गरीब ब्राह्मण, भूमिहार, कायस्थ, राजपूत या बनिया भी उस पीड़ा से गुजरता है, जिस पीड़ा से कोई वंचित वर्ग का गरीब गुजरता है। उनके पास भी कोचिंग का पैसा नहीं होता, न ही संसाधन। ऐसे में उन्हें शिक्षा और प्रतियोगिता में बराबरी का अवसर क्यों न मिले?

EWS आरक्षण की शुरुआत एक सकारात्मक कदम थी, लेकिन जब सीटें वही रहती हैं और प्रतिस्पर्धा में असमानता बनी रहती है, तो यह राहत अधूरी रह जाती है। आज जरूरत है कि आरक्षण का आधार – केवल जाति नहीं, बल्कि आर्थिक स्थिति और वास्तविक पिछड़ापन हो।

🔴 जातिगत नेता: समाज का भला या वोट बैंक की राजनीति?

अधिकांश जातिगत नेता आरक्षण को राजनीतिक अस्त्र की तरह इस्तेमाल करते हैं। वे अपने समाज के गरीबों को जाति के नाम पर भड़काते हैं, लेकिन खुद के बच्चों को विदेश और निजी विश्वविद्यालयों में भेजते हैं। क्या यह सच्चा नेतृत्व है?

अगर वे वाकई में अपने समाज का भला चाहते होते, तो शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और स्वावलंबन पर काम करते। लेकिन नहीं – उन्हें चाहिए एक गरीब, असहाय, और जाति के नाम पर वोट देने वाला वर्ग।

🟢 समाधान क्या है?

भारत को एकजुट रखने के लिए ज़रूरी है कि:

आरक्षण की समीक्षा हो।

योग्यता + आर्थिक स्थिति को प्राथमिकता मिले।

जातिवादी नेताओं का सामाजिक बहिष्कार हो।

युवा समाज जाति के बजाय कौशल, शिक्षा और राष्ट्रनिर्माण की बात करे।


समाज बंट रहा है, लेकिन हमें जोड़ने की जिम्मेदारी निभानी होगी।

आरक्षण को आवश्यकता के अनुसार सीमित और प्रभावी बनाना ही एकमात्र रास्ता है जिससे न सिर्फ समाज में समरसता आएगी, बल्कि देश की योग्यता भी बनी रहेगी।

– शैलेश कुमार सिंह
संपादक, Abhivarta.com

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Author: Abhi Varta

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