भारत के संविधान निर्माण में जहाँ डॉ. भीमराव अंबेडकर को ‘संविधान निर्माता’ का दर्जा मिला, वहीं डॉ. बी. एन. राव, जो संविधान के असली प्रारूपकर्ता थे, आज भी जनमानस में अपेक्षित स्थान नहीं पा सके हैं। इस लेख में दोनों दृष्टिकोणों का तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए आरक्षण व्यवस्था के दीर्घकालिक प्रभावों की समीक्षा की गई है।
डॉ. बी. एन. राव: गुमनाम संविधान निर्माता
संविधान सलाहकार डॉ. बी. एन. राव ने ही संविधान का पहला ड्राफ्ट तैयार किया था। उनका दृष्टिकोण था – न्यूनतम विवाद, अधिकतम कार्यक्षमता, और तटस्थ संविधान। उन्होंने अनेक अंतरराष्ट्रीय संविधानों का गहन अध्ययन किया था और भारत के लिए एक न्यायपूर्ण व समन्वित संविधान की नींव रखी।
डॉ. अंबेडकर और आरक्षण का प्रभाव
डॉ. अंबेडकर ने वंचित समुदायों के लिए आरक्षण की वकालत की, जिससे सामाजिक न्याय की दिशा में पहल हुई। उनका इरादा था कि यह व्यवस्था केवल 10 वर्षों तक लागू रहे और बाद में इसकी समीक्षा की जाए। लेकिन समय के साथ आरक्षण एक स्थायी और राजनीतिक उपकरण बन गया।

नुकसान के पहलू
1. योग्यता का ह्रास: आरक्षण व्यवस्था ने योग्यता आधारित प्रतिस्पर्धा को कमजोर किया।
2. सामाजिक विभाजन: जातीय राजनीति को बढ़ावा मिला।
3. आर्थिक पलायन: योग्य युवा विदेशों की ओर रुख कर रहे हैं।
4. सवर्ण गरीबों की उपेक्षा: आर्थिक आधार पर आरक्षण की अनदेखी हुई।
5. समानता की भावना क्षीण: देश में ‘आरक्षण प्राप्त’ बनाम ‘वंचित’ का मानसिक भेद गहराया।
आगे की चुनौती
यदि निजी क्षेत्र में भी आरक्षण लागू किया गया, तो निवेश में गिरावट आ सकती है और आंतरिक असंतोष बढ़ सकता है। सामाजिक विद्वेष राष्ट्रीय एकता के लिए गंभीर खतरा बन सकता है।
निष्कर्ष
जहाँ डॉ. अंबेडकर ने तत्कालीन दलित समाज को अधिकार दिलाने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई, वहीं डॉ. बी. एन. राव का दीर्घकालिक न्याय और विकास आधारित दृष्टिकोण आज कहीं अधिक प्रासंगिक लगता है। देश को अब आरक्षण की राजनीति से आगे बढ़कर, शिक्षा, रोजगार और कौशल विकास को प्राथमिकता देनी चाहिए।
